जहां देशभर में दिवाली दीयों, मिठाइयों और आतिशबाज़ी से रोशन होती है, वहीं पश्चिम बंगाल में दिवाली की रात एक अनोखा और रहस्यमयी नज़ारा देखने को मिलता है।
यहां दीपावली के दिन काली पूजा होती है — और वो भी किसी मंदिर में नहीं, बल्कि श्मशान घाट में।
महाश्मशान में जलती चिताओं के बीच पूजा
कोलकाता का केवड़ातला महाश्मशान इस पूजा के लिए जाना जाता है। यह जगह मशहूर कालीघाट मंदिर के पास है, जहां चौबीसों घंटे चिताएं जलती रहती हैं।
इसी वजह से इसे “महाश्मशान” कहा जाता है।
हर साल यहां डोम संप्रदाय के लोग श्मशान की दीवारों की सफाई और रंगाई-पुताई करते हैं, क्योंकि दिवाली के दिन यहीं पर मां काली की पूजा होती है।
पूजा के आयोजक उत्तम दत्त बताते हैं कि यहां पूजा की परंपरा बाकी जगहों से बिल्कुल अलग है।
“जब तक श्मशान में कोई शव नहीं आता, हम देवी को भोग नहीं चढ़ाते। और पूजा के समय यहां जलने वाली एक चिता को पंडाल में रखा जाता है,”
वे कहते हैं।
ऐसा कहा जाता है कि पूरे बंगाल में इस तरह की पूजा सिर्फ कालीघाट के श्मशान में होती है।
150 साल पुरानी परंपरा, काली की अलग रूप में होती पूजा
यह परंपरा करीब 1870 में शुरू हुई थी, जब एक कापालिक साधु ने दो स्थानीय ब्राह्मणों की मदद से श्मशान में पहली बार पूजा की थी।
तब से लेकर अब तक, यह परंपरा हर साल बिना रुके निभाई जा रही है।
यहां मां काली की मूर्ति भी बाकी जगहों से अलग होती है —
आम तौर पर काली माता की मूर्तियों में 8 से 12 हाथ और बाहर निकली हुई जीभ होती है,
लेकिन इस पूजा की मूर्ति में सिर्फ दो हाथ होते हैं और जीभ अंदर रहती है।
उत्तम दत्त के अनुसार,
“चिताओं के बीच मां काली की यह पूजा सबसे पवित्र और रहस्यमयी मानी जाती है।”
टेंगरा का चीनी काली मंदिर – Faith Beyond Borders
कोलकाता का टेंगरा इलाका, जो “चाइनाटाउन” के नाम से भी जाना जाता है, वहां एक बहुत ही अनोखा मंदिर है — चीनी काली मंदिर।
यहां हिंदू और चीनी संस्कृति का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।
मंदिर के पुजारी अर्णब मुखर्जी बताते हैं कि करीब 60 साल पहले एक चीनी परिवार का बच्चा बहुत बीमार पड़ गया था।
जब सारे इलाज नाकाम रहे, तो उसके परिवार ने एक पेड़ के नीचे रखी नारायण शिला (पवित्र पत्थर) की पूजा की।
कहते हैं, कुछ ही दिनों में वह बच्चा चमत्कारिक रूप से ठीक हो गया।
उसके बाद से चीनी समुदाय के लोगों में काली माता के प्रति गहरी श्रद्धा जागी। उन्होंने मिलकर मंदिर का निर्माण कराया।
आज भी यहां चीन और भारत दोनों देशों के भक्त पूजा करने आते हैं — बीजिंग से भी लोग यहां पहुंचते हैं।
मंदिर की एक खास बात यह है कि यहां मांस का भोग नहीं चढ़ाया जाता,
क्योंकि यहां नारायण शिला है, इसलिए केवल शाकाहारी भोग ही चढ़ता है।
7 अनोखी दिवाली सीरीज़ की बाकी कहानियां भी दिलचस्प हैं
यह रिपोर्ट “7 अनोखी दिवाली” सीरीज़ का हिस्सा है, जिसमें देशभर की अलग-अलग परंपराएं बताई जा रही हैं —
अरुणाचल प्रदेश – मक्खन के दीयों से दिवाली
अरुणाचल के तवांग इलाके में दिवाली का मतलब होता है शांति और प्रार्थना।
यहां पटाखों का शोर नहीं, बल्कि बटर लैंप्स (मक्खन के दीये) से रोशनी होती है।
मोनपा जनजाति और बौद्ध अनुयायी अपने घरों और मठों में मक्खन के दीये जलाते हैं — ये पूरी तरह इको-फ्रेंडली दिवाली होती है।
केरल – ‘पोलियंथ्रा’ उत्सव
केरल के कासरगोड जिले में तूलूभाषी समुदाय दिवाली के दिन ‘पोलियंथ्रा’ मनाता है।
वे एझिलम पाला पेड़ की 7 शाखाओं से लकड़ी का दीपस्तंभ (Poliyanthram Pala) बनाते हैं और उसे आंगन, कुएं या अस्तबल के पास सजाते हैं।
यह त्योहार बालि पूजा और दीपोत्सव दोनों का प्रतीक है।
सिक्किम – तिहार उत्सव
सिक्किम में दिवाली को “तिहार” कहा जाता है। यह 5 दिन तक चलता है और इसे गोरखा समुदाय मनाता है।
इस त्योहार में कौवों, कुत्तों, गायों और बैलों की पूजा होती है।
मान्यता है कि यमुना ने यमराज को बुलाने के लिए इन्हीं को दूत के रूप में भेजा था।
यह त्योहार पशु-पक्षियों, प्रकृति और इंसानों के रिश्ते का उत्सव है।
दिवाली जहां एक ओर रोशनी, खुशी और उल्लास का प्रतीक है,
वहीं देश के अलग-अलग हिस्सों में इसे अलग अर्थों और आस्थाओं के साथ मनाया जाता है।
बंगाल का श्मशान में जलता दीपक, अरुणाचल का मक्खन का दीया, केरल का लकड़ी का दीपस्तंभ,
या सिक्किम की पशु पूजा — सब एक ही बात सिखाते हैं:
“अंधकार पर प्रकाश और भय पर विश्वास की जीत।”